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संस्कार का हेतु क्या है - षोडश संस्कार (२)
मनुष्यजीवन अति मूल्यवान है। हमें पशु- पक्षी योनिमें के बदले मनुष्य जन्म मिला है यह हमारा सौभाग्य है। हमारी भारतीय संस्कृति- वैदिक संस्कृति मानती है कि सेंकडो जन्मो के बाद यह मनुष्य देह मिलता है। इस मनुष्य जन्म के साथ साथ भगवान, समाज, कुटुंब, निसर्ग आदि की हमारी और से कुछ अपेक्षाए रहती है। इसलिए आनेवाली पीढी को, मनुष्य जन्म लेने वाले हर एक जीव को ज्यादा सुसंस्कृत, सुद्रढ, स्वच्छ, निर्मळ और सुंदर बनाने की जिम्मेदारी हमारी है ।
भगवानने सुंदर सृष्टि की निर्मिति की है। उसके उपर पर्वत, सरिता और सुंदर घाटीयों का निर्माण कर उसे और भी सुशोभित किया । सिर्फ वृक्ष- वनस्पति न बनाते उसके उपर सुगंधित और रंगबिरंगे, मनको प्रफुल्लित करें एसे पुष्पो का भी निर्माण किया। इसी तरह अगर इस सृष्टि पर अवतरित जीव को विविध संस्कार द्वारा गुणवान, चारित्र्यवान, बुद्धिमान, भाववान बनाया जाये तो मनुष्य जीवन यथार्थ बनें। इतना ही नहीं भगवानने हमे जो जीव विकसित करने के लिये दिया है उससे भगवान – सृष्टि – समाज आनंदित हो, प्रसन्न हो ऐसा बनाने की जिम्मेदारी भी हमारी है ।
षोडश संस्कार - आयुर्वेद और अध्यात्म का समन्वय
भारतीय संस्कृतिमें आदर्श समाजजीवन वह उसके नींव में है। आदर्श पुरुष, आदर्श परिवार एवं आदर्श समाज के साथ साथ हमारे सांस्कृतिक मूल्यो का आविष्कार पीढीयों तक हो उसके लिये हमारी भारतीय संस्कृति जाग्रत है । आदर्श भारतीय जीवन प्रणाली के पीछे राम-कृष्ण जैसे अवतार और मनु से लेकर वशिष्ठ, वाल्मिकि, पराशर, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य जैसे तपोनिष्ठ ऋषियों का उत्कृष्ट योगदान रहा है । भारतीय जीवन प्रणाली के तहत हर एक परिवारमें आदर्श जीवन प्रणाली का आग्रह रखा जाता था। हर एक परिवार इस संस्कार हेतु प्रयत्नशील था, और उसीका ही परिणाम उस समय पर व्यक्ति, परिवार और समाजमें दीखता था । यही संस्कार के मूल हमारे रंगसूत्रो के भीतर ऐसे सम्मिलीत हो गये है कि उसके परिणम स्वरूप आज इतनी पीढीयों के बाद भी उसके लिये हमारे भीतर एक भाव और जीवन में लाने का आग्रह आज जीर्ण अवस्थामें भी जीवंत है ।
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